अध्यात्म क्या है?


अध्यात्म क्या है ? 
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            इस अर्जुन के एक प्रश्न के साथ हम दो प्रश्न एक साथ संयुक्त कर लें तो समझना और अधिक सरल होगा—
“किं तद्ब्रह्म किमध्यात्मम् ?” गी.८/१ अर्थात वह ब्रह्म क्या है ? और अध्यात्म क्या है ? उत्तर में श्रीभगवान् कहते हैं—
“अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते” ८/३ अर्थात जो (अक्षर से भी) श्रेष्ठ अक्षर है वह ब्रह्म है, और स्वभाव को ही अध्यात्म कहते हैं । यहाँ अक्षर से प्रकृति का भी ग्रहण किया जा सकता है और प्रणव (ॐ) को भी अपनी भावना के अनुसार, इसीलिये उसका निराकरण यहाँ “परम” विशेषण देकर किया गया है ताकि भ्रम उत्पन्न न हो (अक्षर की व्याख्या पुरुषोत्तम नामक शीर्षक में भी देखना चाहिए)। अब हम पहले अध्यात्म को समझ लेते हैं कि अध्यात्म है क्या ? अध्यात्म को स्वयं भगवान परिभाषित करते हैं—
“अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थ दर्शनम् ।
एतञ्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा ॥१३/११॥ 
अर्थात अध्यात्म ज्ञान नित्यतत्त्व का बोध कराने वाला है, अर्थात जो जिस साधन से आत्मस्वरूप नित्य अविनाशी श्रेष्ठ चैतन्य सत्ता का स्वरूपतः बोध हो जाये वही अध्यात्म नाम से कहा गया है और जिस ज्ञान से उसी चिन्मय परं सत्ता का अपरोक्ष साक्षात्कार हो जाये उसी बोधस्वरूप साधन को यहाँ ज्ञान के रूप में परिभाषित किया गया है । इस परिभाषा को पहले मन में बैठा ठीक ठीक बैठ लेना चाहिए अन्यथा आगे कुछ भी समझ में आने वाला नहीं है । 
               अब प्रश्न उठता है कि यहाँ पर प्रश्न अध्यात्म से संबंधित है अतः उसी का स्पष्टीकरण करना चाहिए न कि ज्ञान को, तथा भगवान ने उत्तर में स्वभाव को ही अध्यात्म कहा है तो साधन का स्वभाव से क्या संबंध है ? 
             इसका उत्तर यह है कि आगे दिया जाने वाला उद्धरण ज्ञान-अज्ञान को परिभाषित करते हुए ब्रह्म (आत्मस्वरूप) का विवेचन करने वाला है, अतः ज्ञान को परिभाषित करना आवश्यक है जिस कारण से एक ही विषय को बार बार न दुहराया जाये और आवश्यक होने पर पुनः उसे देखा जा सके । स्वभाव को भगवान ने अध्यात्म क्यों कहा और यहाँ साधन को यह भी एक साथ ही इस प्रकार अवलोकन करना चाहिए—
न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः। 
न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते ॥ 
नादत्ते कश्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः । 
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ॥गी.५/१४-१५॥ 
        इन दोनो ही श्लोकों में आत्मा (ब्रह्म) को सर्वथा क्रिया आदि विकारों से रहित बताते हुए “स्वभाव” को ही क्रियमाण बताया गया है । इसी क्रियमाण स्वभाव को ही यहाँ अज्ञान द्वारा मोहित होना बताते हुए उसी अज्ञान को ही सृष्टि का कारण बताया गया है । किन्तु यदि आत्मस्वरूप का यथार्थ साक्षात्कार करना है तो अज्ञान अर्थात स्वभाव का नाश करना आवश्यक है फिर वह श्रेष्ठ आत्मा बादलों से निकले हुए सूर्य के समान प्रकाशित हो जायेगा—
ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः । 
तेषामादित्वज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम् ॥गी.५/१६॥ 
        इस प्रकार अर्जुन के पहले प्रश्न अक्षर ब्रह्म का उत्तर भगवान ने दे दिया, साथ ही अध्यात्म को भी परिभाषित कर दिया । अब विचार करते हैं कि स्वभाव अध्यात्म क्यों कहा गया है ? 
               स्वभाव को यदि हम स्व+भाव इस प्रकार देखें तो अर्थात शीघ्र स्पष्ट हो जायेगा । इसमें से “स्व” का अर्थ उपरोक्त श्लोकों में स्पष्ट हो चुका है किन्तु भाव को स्पष्ट करते हैं जिस भाव से संयुक्त होने पर आत्मा ही संपूर्ण सृजन करता है । 
            भाव का अर्थ होता है विकार, इन विकारों से ही संपूर्ण सृष्टि व्याप्त है— “त्रिभिर्गुणमयैभावैरेभिः सर्वमिदं जगत्” ७/१३ और इसी से संपूर्ण जगत मोहित हो रहा है जैसा कि ऊपर भी कहा गया है और इस श्लोक में भी अविनाशी श्रेष्ठ आत्मा के स्वरूप को न जानने का कारण मोह को ही बताया गया है— “मोहितं नाभिजानाति मामेभ्यः परमव्ययम्” गी.७/१३॥ 
           इन विकारों को ही गीता में अष्टधा प्रकृति और उसे स्वीकार करके तद्रूपता को प्राप्त करने वाले को जीव कहा गया है गी.७/४-५, जिसे “पुरुषः प्रकृतिस्थः” गी.१३/२१ के रूप में भी प्रतिपादित किया गया है साथ ही विकारों को — “इच्छा द्वेषः सुखं दुःखम्” १३/६ इत्यादि के रूप में भी विकारों को भी क्षेत्र सहित कहा गया है । अष्टधा प्रकृति के अन्तर्गत कहे गये मन बुद्धि और अहंकार के अन्तर्गत ही इच्छा-द्वेष आदि विकार आ जाते हैं जबकि पंचमहाभूत स्थूल शरीर रूप में ही एक वैचारिक भाव से स्थित है । ये सभी तीन गुण और उसके विकारों से संयुक्त होने के कारण “भाव” कहे गये हैं । 
               स्वभाव का अर्थ गीता में प्रकृति भी किया गया है और प्रकृति का लक्षण क्रियामाण करते हैं— 
“प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः गुणैः कर्माणि सर्वशः, गुणा गुणेषु वर्तन्ते” गी.७/२७-२८, ये सभी भाव हैं और प्रत्येक प्राणी प्रकृति अर्थात “स्व भाव” से बंध कर ही कर्म करता है— 
स्वभावजेन कौन्तेय निबद्धः स्वेन कर्मणा ।
कर्तुं नेच्छसि यन्मोहात्करिष्यस्यवशोऽपि तत् ॥गी.१८/६०॥ 
         अर्थात “स्व भाव” यानी उसने जिन विकारों को स्वीकार कर लिया है उन विकारों से दृढ़ तादात्य होने के कारण मनुष्य न चाह करकर भी उन्हीं विकारों के अनुसार कर्म करने को बाध्य है क्योंकि— “प्रकृतिं त्वां नियोक्ष्यति” १८/५९॥ नियंत्रण तो उसकी प्रकृति ही करती है । 
            इस प्रकार पर निर्विकार आत्मा का प्रतिपादन करते हुए बताया गया है कि वही निर्विकार आत्मा जब भाव अर्थात तीनों गुणों के विकारों को स्वीकार कर लेती है तब कर्तृत्वाभिमान से युक्त होकर सुख-दुःखादि बन्धन से बंध जाता है । स्थिति यह हो जाती है कि वह अपने विकारों को तो देख नहीं पाता है और उन विकारों को दूसरे में अध्यारोप करके दोषारोपण करता हुआ स्वयं दुःखी होता है और दूसरे को भी दुःखी करता फलस्वरूप वह चौरासी के चक्र में पड़कर अविनाशी भी विनाश को प्राप्त होता हुआ सा प्रतीत होता है । 
            इस स्व और भाव को जो जान लेता है वही आध्यात्मिक है वह कभी भी बन्धन को प्राप्त नहीं होता— “इति मत्वा न सज्जते” गी.३/२८ और जिन साधनों के माध्यम से स्व और भाव को अलग अलग करके जाना जाता है उन स्व और भाव को दर्पण की तरह दिखाने (बोध कराने) वाले साधन ही अध्यात्म नाम से कहे गये हैं । यहाँ स्वभाव का अर्थ सीधे सीधे जीव लेना चाहिए और उसके यथार्थ को जानना ही स्वभाव नाम का अध्यात्म है । 
                 इसे थोड़ा और सरल रूप से समझ लें, भाव का अर्थ है तीनों गुणों में से किसी न किसी गुण से उत्पन्न राग और द्वेष ही इस सृष्टि के सृजन कर्ता एवं विनाशक हैं, ये जिनके आधीन होते हैं वही नित्य एवं अविनाशी है यह हुआ अध्यात्म, ब्रह्म स्वरूपता का परोक्ष ज्ञान भी कह सकते हैं और अपरोक्ष होना ही ज्ञान की पराकाष्ठा और आत्मा की तद्रूपता है । ओ३म् ! 
             सूचना:- यहाँ पर यदि यह शंका हो जाये कि प्रकृति क्षर है या अक्षर तो इसके “पुरुषोत्तम" नामक शीर्षक पढ़ें । धन्यवाद! 
                इस लेख का #प्रेरणा_स्रोत—
            मनुष्य में कब कौन सा राग उत्पन्न हो जाये यह श्वास जब तक है तब तक अनुमान नहीं किया जा सकता है, ठीक वैसा ही मेरे विषय में समझना चाहिए क्योंकि आखिर मैं भी हूँ तो अपनी प्रकृति के आधीन ही, तभी तो सुख-दुःखादि द्वन्द्वों का भोग प्राप्त करके तदनुसार शारीरिक, मानसिक एवं वाचिक रूप से प्रतिक्रिया करूँगा । इसके लिए पहले मेरा पूर्व का इतिहास समझना आवश्यक है । मैं विद्यार्थी जीवन में सदैव लड़कियों से दूरी बनाकर रखता था । आठवीं कक्षा के बाद दूर शरह जाना पड़ा अतः उस स्कूल के सभी लड़की लड़के स्वतः तितरबितर हो गये । 
            मैं जिस नये स्कूल में गया वहाँ की स्थिति ये थी कि मैंने लड़कियों से बात करना भी कभी उचित नहीं समझा और यदि कभी किसी ने बात की भी तो उत्तर नहीं देता था और वहाँ से हट जाता था, यदि किसी लड़की ने कभी मार्ग पूछा तो बिना बोले हाथ के संकेत से रास्ता बता देता था, फलस्वरूप लड़कियां चिढ़ गईं और वे रास्ते में आकर “देखो देखो वह साधु जा रहा साधु जा रहा” करके उपहास करतीं और साइकिल मेरी साइकिल से आगे निकाल कर वे आगे न तो निकलने का रास्ता देतीं और न ही स्वयं शीघ्रता से आगे बढ़तीं । फलस्वरूप मैं छुट्टी के बाद स्कूल से निकलकर कहीं अन्यत्र घंटों बैठा रहता और फिर विलंब से घर जाता था । फिर भी कभी कभी यह स्थिति बन ही जाती थी । मैं अपने गाँव में रहने के बाद भी आसपास के उतने ही गांव जानता था जितने स्कूल के रास्ते में पड़ते थे । यह मेरा पूर्व का चरित्र रहा है । 
           किन्तु जैसा कि आप सभी जानते हैं कि यदि बहुत वर्षों बाद आपको कोई बिछड़ा हुआ मिले तो पहले उससे आपके कोई संबंध रहे हों या न रहे हों मिलने की प्रसन्नता तो अपार होती ही है, वही हालात मेरी फेसबुक पर एक स्त्री का चित्र देखकर हुई । मैं उसके चेहरे को अपने विद्यार्थी जीवन से मिलाने लगा किन्तु समझ में न आया तो पूछने का निश्चय किया, यद्यपि मेरे जीवन में अब कुछ भी छिपाने के लिए शेष नहीं बचा है तो भी मैने उस लगभग ५० वर्ष के आसपास की आध्यात्मिक महिला से मैसेंजर में पूछना चाहा, कारण कि कदाचित वह न हो जिसे मैं सोच रहा हूँ, साथ ही मैं स्वयं का भी पूर्वाश्रम से संबंधित परिचय देने से बचना चाहता था किन्तु उसने कहा कि स्वामी जी जब आपको कुछ छिपाने योग्य नहीं है तो सार्वजनिक बताएं क्या बात करनी है ? 
             उसके इस उत्तर आने तक मेरा मन बदल गया कि कहाँ मोह में पड़ा गया, अपना घर परिवार छोड़कर अन्य से प्रयोजन ही क्या बचा है जो परिचय चाहिए, अतः उत्तर दे दिया कि जब आवश्यक होगा तब पूछ लूंगा, ये बात रात साढ़े दस बजे हुई । सुबह जब मैं ध्यान में बैठा तो प्रश्न उठा कि स्त्रियों में नकारात्मक भाव अधिक होता है कहीं गलत न समझ ले अतः पूछ ही लेना चाहिए । यह सोच कर मैं अपने सिद्धांत के विरुद्ध सुबह साढ़े पांच बजे फेसबुक पर सीधे उसी जगह जाकर पूछा कि “आपकी आठवीं कक्षा की बोर्ड परीक्षा का सेंटर कहाँ था और किस वर्ष में थी ?” साथ ही यह भी कहा कि यदि उचित समझना तो उत्तर देना अन्यथा टिप्पणी मिटा देना । इस टिप्पणी के बाद जब मैं वापस हुआ तब उसकी एक पोस्ट सामने पड़ गई उसको देखा तो, इमोजी लगी थी “मैं अत्यंत दुःखी एवं आहत हूँ” और पोस्ट थी— #एक_विरक्त_संन्यासी_यदि_किसी_महिला_से_मैसेंजर_में बात_करने_का_आग्रह_करे_तो_क्या_करना_चाहिए ?” 
           वहाँ जिसे जो कहना था कह दिया और कह रहा था किन्तु मैं भी पीछे कहाँ रहने वाला, मैने भी कह दिया कि ऐसा विरक्त महात्मा संन्यासी हो नहीं सकता है ऐसे को तो अनफ्रेंड या ब्लॉक कर देना चाहिए । किन्तु बाद में याद आया कि मेरा नाम पोस्ट में नहीं है अतः मैं स्वयं ही अपने नाम को स्पष्ट कर दूँ ताकि जो अपराध किया है उसका प्रत्यक्ष फल प्रत्यक्ष गालियों द्वारा मिल सके किन्तु तब तक वह पोस्ट मिटायी जा चुकी थी । चूंकि मेरा नाम उस पोस्ट पर नहीं था इसलिए उसका नाम मैने भी देना उचित नहीं समझा । देवी ! आप जो भी हो आपकी यह शिक्षा जीवन में गुरु प्रदत्त विद्या के समान मेरे हृदय में जब तक श्वास है तब तक स्थिर होकर सम्मानित होती रहेगी, ताकि ऐसा मोह दुबारा कभी न हो । 
           #शिक्षा— हम सभी राग-द्वेष रूप प्रकृति के गुणों से तब तक बाध्य हैं जब तक आखिरी श्वास है अतः इन दोनों के उपस्थित होने पर वैसी प्रतिक्रिया भी स्वाभाविक है । किन्तु गलती हो जाने पर विवेक से काम काम लेना चाहिए और यह अनुसंधान करना चाहिए कि गलती उसकी नहीं मेरी है । मेरे अन्दर ऐसा भाव आया ही क्यों ? और दूसरे के द्वारा होने वाली कठोर प्रतिक्रिया को अपने उस पाप का प्रायश्चित समझना चाहिए । 
                 हमेशा ध्यान रखना चाहिए कि— #सामने_वाले_का_सकारात्मक_भाव_हमारा_उत्साह_वर्धन_करता_है_और_नकारात्मक_भाव_हमारा_बौद्धिक_विकास । इस प्रकार हमारी ही गलती हमारा गुरु बनकर मार्गदर्शन करेगा और आत्मोन्नति के स्रोत सदैव खुले रहेंगे । 
            चूंकि वह महिला भी आध्यात्मिक थी, अतः मेरे मन में प्रश्न उठा कि इतनी नकारात्मक ऊर्जा का स्रोत किसी आध्यात्मिक में कैसे हो सकता है ? उसका फल यह हुआ कि यही प्रश्न अर्जुन के मुख से भगवती गीता ने स्मरण करा दिया और उत्तर इस प्रकार मिला जिससे मेरे बौद्धिक समझ में अभिवृद्धि हुई । ऐसे नकारात्मक भाव को शत शत नमन । ओ३म् !
                        स्वामी शिवाश्रम

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