वितंडा से बचिए


वितंडा से बचिए
            आज के ज्ञानियों के वितंडा का स्वरूप देखिए । आज से तीन वर्ष पहले एक मेरे अत्यन्त करीबी महात्मा जिनका मैं नाम नहीं ले सकता, उनसे तत्त्व चर्चा के अन्तर्गत कुछ ऐसा प्रसंग आया जिसमें मैने त्रिपुरा रहस्य का उदाहरण दिया जिसमें अष्टावक्र को योगिनी द्वारा यह कहा गया था कि इस सभा में उस चिन्मय परम तत्त्व को या तो मैं जानती हूँ या फिर राजा जनक जानते हैं । इस पर उन महात्मा ने कहा कि नहीं ऐसा कहीं नहीं कहा है, वहाँ संदेह व्यक्त किया है कि यद्यपि हम दोनो जानते हैं तथापि वह भी संदिग्ध है । अन्त में मूल श्लोक निकाला गया—
एतावत्सु सभासत्सु न विजानाति कश्चन ।
राजाऽयं वेत्त्यहं वापि वेद्मि नान्यस्तु कश्चन ॥२/१५/७६॥ 
      अर्थात यहाँ जितने सभासद हैं उनमें से कोई भी नहीं जानता । मैं जानती हूँ या निश्चित ही राजा जानता है, अन्य कोई नहीं । 
             मूल श्लोक में वा को उन महोदय ने संदेह के अन्तर्गत रखकर बताया कि नहीं उन्हें भी ज्ञान होने में सन्देह था । मैनै पूर्वापर का विचार करके आगे के प्रसंग के साथ संगति की बात कही, किन्तु मेरे अतिरिक्त सभी उनके पक्ष में होने के कारण मुझे मौन होना पड़ा । किन्तु यदि वास्तव में योगिनी को अपने ज्ञान में संदेह था तो—
ब्रजाम्यहं त्वया चैतन्न विज्ञातं सकृच्छ्रुतेः । 
बोधयिष्यति त्वामेव राजा बुद्धिमतां वरः ॥ 
पृच्छ भूयः संशयं ते सर्व छेत्स्यति वै नृपः ।२/१५/९९-१००पू.। 
             अर्थात अब मैं जाती हूँ । एक बार सुन लेने से ही तुम इसे नहीं जान सकोगे । ये बुद्धिमानों में श्रेष्ठ राजा (जनक) तुम्हें इसका बोध करायेंगे । तुम इनसे पुनः प्रश्न करना । वे तुम्हारे सब संशयों का छेदन कर देंगे । 
            अब विचारणीय यह है कि उन महात्मा सहित सभी लोगों के अनुसार यदि उस योगिनी को स्वयं और राजा पर भी यथार्थ ज्ञान होने में संदेह था तो यह कैसे कहा कि राजा तुम्हारे सभी संशयों का नाश कर देंगे ? और राजा द्वारा संदेह नाश का उसे ज्ञान कैसे हुआ ? जबकि आगे महाराज जनक के उपदेश से अष्टावक्र के सभी संशयों का सर्वथा नाश हो जाता है । यदि राजा को ज्ञान न होता तो अष्टावक्र को समाधान कैसे मिलता ? इसके अतिरिक्त पहले स्वयं दत्तात्रेय जी परशुराम जी से कहते हैं—
पुरा विदेहेषु कश्चिदासीद्राजा सुधार्मिकः । 
वृद्धप्रज्ञो हि जनकः प्रविज्ञातपरावरः॥ त्रि.र.२/१५/२८पू. एवं २९उ.॥ 
              अर्थात पूर्वकाल में विदेह राज्य में जनक नाम का कोई धर्मनिष्ठ और बुद्धिमान राजा था, उसे परावर अर्थात आत्मतत्त्व (परमात्मा) का ज्ञान हो चुका था । 
            समस्या यह है कि मैं पढ़ा न होने के कारण व्याकरण का तोड़मरोड़ जानता नहीं, यही मेरी कमजोरी है । अतः अपने को विद्वान कहने वाले वितंडा का आश्रय लेकर मुंह बंद करने में सक्षम इसलिए हो जाते हैं कि तथाकथित विद्वान भी शब्दजाल से ऊपर उठकर उपक्रम-उपसंहार का आश्रय लिये बिना ही लोगों को समझा पाने में सफल हो जाते हैं । 
             आज फेसबुक सहित सभी इन्टरनेट साइटों पर इसी प्रकार के वितंडा (कहीं कहीं जल्प) की भरमार है तथापि किन्हीं भी दृढ़ निश्चयी साधकों को यदि उन्होंने पूर्वापर का चिंतन किया है तो प्रकंपित या विचलित होने की आवश्यकता नहीं है । शास्त्र यदि अपने अनुभव के या आपका अनुभव शास्त्र के अनुकूल है तो वितंडा और जल्प दोनो की ही उपेक्षा कर देने में ही कुशलता है । ओ३म् !
                         स्वामी शिवाश्रम

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

जीव की नित्यता एवं अभिन्नता

पुराण लेखन पर प्रश्नचिह्न

🔯स्त्री शूद्र सन्न्यास विचार:🔯🚩