पुरुषोत्तम

पुरुषोत्तम
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शास्त्रों के अनुसार संपूर्ण जगत प्रकृति-पुरुषात्मक है । किन्तु कोई परमतत्त्व ऐसा भी है जो संपूर्ण जगत से परे है । श्रीमद्भागवतादि शास्त्रों में उसकी स्तुति प्रकृति-पुरुष से परे उन दोनों के नियामक या उन दोनो को सत्ता देने वाले सर्वाधिष्ठान के रूप में की गई है । तीनो गुणों की साम्यावस्था प्रकृति को भगवती गीता दो भागों में विभाजित करती है, पहली अपरा प्रकृति और दूसरी परा प्रकृति । अपरा प्रकृति को पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि एवं अहंकार इन आठ भागों में और परा प्रकृति का लक्षण किया जीवभाव को प्राप्त जो संपूर्ण जगत को धारण करने वाला चिदाभास वह गी.७/४-५, इन सबसे भिन्न जिसे बताया गया है जो इन दोनो का निमित्तोपादान कारण है जिसमें त्रिगुणात्मक संपूर्ण जगत धागे में धागे की मणियों की तरह अभिन्न रूप से पिरोया हुआ है गी.७/६-७ ।
           अपर का अर्थ होता है कनिष्ट या अधम, पर का अर्थ होता है उत्तम या श्रेष्ठ । अतः प्रकृति को यहाँ पर निकृष्ट और श्रेष्ठ करके बताया गया । अर्जुन के आठवें अध्याय के सभी सातों प्रश्न श्लोक १-२ में सातवें अध्याय को समझने के लिए ही हैं । जब तक यह अध्याय समझ में नहीं आता है तब तक भगवान की प्रतिज्ञा के अनुसार ज्ञान-विज्ञान समझ में आने वाला नहीं है और इस ज्ञान-विज्ञान की व्याख्या पन्द्रहवें अध्याय तक की गई है ।
             जीव चिदात्मा का चिदाभास है, अतः वह ऊर्ध्व गति वाला होकर ही इस संपूर्ण जगत को धारण करता है इसी बात को बताने के लिए— “ऊर्ध्वमूलमधःशाखम्” गी.१५/१ कहा गया है । क्योंकि प्रकृति सदैव पतन शील निम्नगामी होती ही है, अतः त्रिगुणात्मक विकारों के पतनशील और अनन्त शाखा-प्रशाखाएं होने के कारण निम्न शाखाओं वाली कही गई है और जीव सबके मूल में एक होने के कारण उसकी अपनी कोई अन्य शाखा नहीं होती है, चूंकि वह वास्तव में है तो चित्प्रकाश का ही आभास (चिदाभास) अतः वह सर्व नियामक होने के कारण ही ऊर्ध्व मूल वाला कहा गया है । इन दोनों से जो भिन्न इनका भी नियामक है उसे सूर्य चंद्र आदि का भी प्रकाशक स्वयं प्रकाशस्वरूप बताया गया है, किन्तु नाम कोई नहीं दिया जा सका गी.१५/६, इसी चिदाभास को ही “ममैवांशो जीवलोके जीवनभूतः सनातनः” १५/७ कहा गया है । वह चिदाभास वस्तुतः सनातन अर्थात नित्य है किन्तु जीव भाव को इस जीवलोक अर्थात शरीर में रहने के कारण प्राप्त हो गया है— “पुरुषः प्रकृतिस्थो हि” गी.१३/२१ अतः अक्षर का अंश (अंग) होने से वह भी अक्षर ही है किन्तु अक्षर अर्थात अविनाशी होने पर भी उसे “अव्यय” कभी नहीं कहा गया है, क्योंकि जीवभाव का व्यय अर्थात् क्षरण एवं उन्नत भाव कीट-पतंगादि निम्न एवं देवादि उच्च भाव में परिवर्तित अर्थात व्यय होता रहता है, अतः वह अक्षर तो है किन्तु अव्यय नहीं  ।
        इन्हीं दोनो भावों को स्पष्ट करते हुए श्रीभगवान् कहते हैं—
द्वामिमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च ।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ॥गी.१५/१६॥
            यहाँ क्षर जिसे कहा गया है वे संपूर्ण प्राणी जो अष्टधा प्रकृति के अन्तर्गत आते हैं उन्हें कहा गया है और कूटस्थ पुरुष को अक्षर कहा गया है । यहाँ पर कूटस्थ का अर्थ कुछ विद्वान माया तो कुछ जीव करते हैं, यदि कूटस्थ का अर्थ माया मान भी लिया जाये तो भी सभी जानते हैं कि माया अनादि है श्वेताश्वतर उपनिषद के अनुसार माया और प्रकृति दोनो एक ही है भिन्न नहीं, इस आधार इस माया का नाश संभव न होने के कारण भी अक्षर ही है और अन्य संपूर्ण प्राणी जो माया के अधीन हैं उनका विनाश अर्थात क्षरण स्वतः दिख ही रहा है अतः उस पर अपना अलग से मत देना उचित नहीं है  और यदि कूटस्थ का अर्थ जीव मान लिया जाये तो भी कोई अन्तर पड़ने वाला नहीं है क्योंकि वही भी अक्षर नाम से प्रसिद्ध ही है ।
             अब बात आती है कि इन दोनो का नाम पुरुष कैसे हुआ ? तो शास्त्र प्रसिद्ध मत है कि पुर कहते हैं नगर को और वह पुर और कोई नहीं बल्कि अपना शरीर ही है, यह पुर स्थूल, सूक्ष्म एवं कारण तीन प्रकार का होता है । किन्तु रहता उस शरीर नामक पुर में ही है, कुछ प्राणी तीनो शरीरों का आश्रय लेते हैं, कुछ दो का तो कुछ एकमात्र कारण शरीर का ही आश्रय लेते हैं । अतः वह पुरुष हो गया । चूंकि जड़ पृथ्वी आदि को भी आश्रय पुरुष से ही मिला अतः वह (स्थूलादि शरीर) भी पुरुष कहलाया । किन्तु भगवती गीता इन दोनो पर जो नियमन करने वाला है उसे उत्तम पुरुष अर्थात श्रेष्ठ पुरुष कहा है ।
              इस प्रकार जो “अक्षरं ब्रह्म परमम्” ८/३ कहा गया है तो उसमें यह समझना चाहिए कि जहाँ भी परम अर्थात श्रेष्ठ शब्द आता है तो वहाँ अपरम् अर्थात कनिष्ठ के सापेक्षता से ही आता है । उसी को यहाँ बताने के लिए अक्षर तो कहा लिए परमम् को आगे करके कहा कि अक्षर अर्थात वह अविनाशी तो है लेकिन प्रकृति भी अक्षर ही है किन्तु वह परिवर्तनशील है, अतः जो अपरिवर्तनीय, नित्य, एकरस, स्थाणुवत् स्थिर छहों विकारों से रहित है, और जो अनन्त ब्रह्माण्डों का विस्तार करने वाला होने से ब्रह्म और आत्मरूप सबको सत्ता देने वाला होने से सर्वाधिष्ठान स्वरूप है उसकी उत्कृष्टता दिखाने के लिए ही यहाँ अक्षर शब्द से प्रकृति अथवा जीव अथवा माया समझने की जो कोई भी भूल करने वाले हो सकते हैं उनके लिए ही परमम् शब्द का प्रयोग करके उठने वाली शंका को निर्मूल करना मात्रा है, अथवा कठोपनिषद के अनुसार जिस प्रणव को भी अक्षर ब्रह्म कहा गया है उसका भी निरकारण यहाँ किया गया है ।
              यहाँ पर एक बात और ध्यान रखना चाहिए कि वेद परमेश्वर के निर्गुण-निराकार की स्तुति कभी नहीं करता है क्योंकि वह मन और वाणी का विषय न होने के कारण अनिर्वचनीय है, अतः उसकी स्तुति और उसका स्वरूप कह पाना संभव नहीं है । परमेश्वर जब सगुण रूप धारण करता है तब उसके उन उन रूपों और क्रियाओं के अनुसार उनके चरित्र और गुणों का वर्णन करते हुए अनिर्वचनीय तत्त्व का संकेत मात्र करते हैं । जैसे गुड़, शहद इत्यादि सभी मिठाइयों के लक्षण करने में उन्हें मात्र मीठा कहा जा सकता है किन्तु सभी की मिठास में क्या भेद है यह अनुभव बिलकुल नहीं बताया जा सकता है, उसका भेद तो उन उन मिठाइयों को खाने के बाद ही जाना जा सकता है । इसी प्रकार जिस परमतत्त्व का शास्त्र अनुभव कराना चाहता है उसे सीधी वैखरी वाणी से बता पाना संभव नहीं है अतः वह इस प्रकार की अन्वय-व्यतिरेक प्रक्रिया से उसके गुणों का वर्णन करते हैं और फिर कह देते हैं नेति-नेति । सभी शास्त्र अपरा विद्या हैं, वे परा विद्या का वर्णन कैसे कर सकते हैं ? किन्तु अपरा विद्या की उपासना करके परा विद्या को अवश्य समझा या प्राप्त किया जा सकता है । यदि फिर भी समझ में नहीं आ रहा है तो समझो उपासना में कोई तो गड़बड़ी है जिसके कारण शास्त्र समझने का अधिकार कम पड़ गया है इसीलिये समझ में नहीं आ रहा है । ओ३म् !

               सूचना— बाद में एक शंका के आधार पर अक्षर शब्द का पुनर्विचार—

              मैने बहुत विचार किया और आज आचार्य शंकर का भाष्य भी ठीक से देखा और पाया कि मैने जो “अक्षर” का अर्थ किया है वह सर्वथा निर्दोष है । मतभेद का कारण है कि “अक्षरं ब्रह्म परमं” का आप अर्थ कर रहे हैं— “अक्षर ही परम ब्रह्म है” किन्तु मैने जो अक्षर किया है वह है— “परम अक्षर ही ब्रह्म है” यही अर्थ शांकर भाष्य को भी मान्य है, इसका उदाहरण भी आचार्य जी ने दिया है— “तस्य वा अक्षरस्य प्रशाने गार्गि” । यह “परम” विशेषण ब्रह्म के साथ नहीं बल्कि “अक्षर” के साथ ही युक्ति संगत है क्योंकि  “अक्षर” को ही ब्रह्म बताना है, जबकि अक्षर का अर्थ प्रकृति, पुरुष (जीव) एवं अविनाशी भी होता है और अव्यय ब्रह्म भी । इसी बात को मैने स्पष्ट किया है कि जिससे कोई अक्षर के रूप में प्रकृति या जीव अथवा “ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म” के प्रमाण से प्रणव को ही अक्षर मानने की भूल न कर ले (इस बात को चित्र में स्पष्ट समझा जा सकता है) यद्यपि ब्रह्म का अर्थ भी प्रकृति और पुरुष होता है किन्तु वह निर्विवाद इसलिए है कि “अक्षर” को ही ब्रह्म बताना है अतः “परम” नामक विशेषण भी अक्षर के साथ ही युक्ति संगत होगा, ब्रह्म के साथ नहीं । इसको थोड़ा और आगे के प्रसंग पर ध्यान केंद्रित करें तो “अव्यक्ताद्व्यक्तयः सर्वाः” ८/१८ में अव्यक्त का अर्थ ब्रह्मा भी होता है और ब्रह्म या परमात्मा भी । अतः कहा जो अव्यक्त से {अर्थात ब्रह्मा से जो परे (श्रेष्ठ) } अव्यक्त (अर्थात परमात्मा) है, उसी प्रकार यहाँ भी “परम” विशेषण अक्षर के साथ देने का तात्पर्य है “अक्षरादक्षरं ब्रह्म” अर्थात अक्षर से जो दूसरा (परे या श्रेष्ठ) अक्षर है वह ब्रह्म है । इस प्रकार प्रत्येक दृष्टिकोण से मेरा विचार आचार्य शंकर से भिन्न न होने के कारण स्वतः प्रमाण सिद्ध है । ओ३म् !
                             स्वामी शिवाश्रम

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