गुरुतत्त्व की अनुभूति क्यों नहीं होती ?
बाह्य गुरु अन्तर्चेतना अर्थात अन्दर के गुरु को जाग्रत करता है, उस समय दो प्रकार की प्रेरणाएं मिलती हैं, पहली आपके हृदय में उत्पन्न होने वाली सूक्ष्म ध्वनियाँ जिन्हें समझकर हम अपना आगे का मार्ग प्रशस्त करते हैं, दूसरी किसी सन्त, बालक या स्त्री रूप में कुछ संबोधन या क्रिया द्वारा प्रेरित करता है । चूंकि गुरु व्यापक तत्त्व है, वह एक ही शरीर से संपूर्ण शिक्षा पूर्ण नहीं कर सकता है क्योंकि वह उतनी ही कला को लेकर उत्पन्न होता है, यद्यपि वह जानता भी और शिक्षा दे भी सकता है तो भी वह लोक दृष्टि से भी बहुत सारी शिक्षाएं नहीं दे सकता है क्योंकि उससे गुरु के स्वार्थी होने का भी भय शिक्षार्थियों में पनपने का भय रहता है । अतः गुरु पर निष्ठा आवश्यक होने के बाद भी सन्तों पर भी निष्ठा और उनकी सेवा अत्यावश्यक है, तभी गुरु कृपा का अनुभव होगा अन्यथा कितने भी विद्वान स्वयं को कोई भी क्यों न सिद्ध कर ले लेकिन गुरु कृपा का अनुभव त्रिकाल में भी नहीं हो सकता है, चूंकि ब्रह्मतत्त्व गुरु से अभिन्न ही होता है तो फिर ब्रह्म का अलग से अनुभव होगा भी नही कैसे ? ओ३म् !
स्वामी शिवाश्रम
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