परमहंस परिब्राजक
जिज्ञासा — गुरुदेव, शब्द "परमहंस परिव्राजक" को कृपया समझावें। 🙏🏼
समाधान— हंस कहते हैं नीर-क्षीर विवेक करने वाले को । जैसे हंस दूध में मिले पानी को अलग करके मात्र दूध को ग्रहण कर लेता है, वैसे ही जो महात्मा अहन्ता और इदन्ता के स्वरूप को ठीक ठीक जानता है वह हंस कोटि का महात्मा होता है, उक्त विवेक के पश्चात जो परमतत्त्व को आत्मसात भी कर ले वह परमहंस कहलाता है । परिब्रजन का अर्थ होता है निरन्तर भ्रमण करना, और जो निरन्तर भ्रमण करता है उसे परिव्राजक कहते हैं । तात्पर्य यह है कि जिसकी कहीं भी स्वल्पाति स्वल्प आसक्ति न हो, यहाँ तक रहने के शरीर में भी, बाह्य कुटी आदि में भी, खाने और सोने का कोई नियम उसके लिए बाध्यकारी नहीं होता है, हाथ में खाने को मिले, खप्पर में या, चांदी सोने के पात्र में, सर्वत्र एक सम अनासक्त भाव में स्थित रहना, सोने के लिए गद्दा, नंगी भूमि, खुले आकाश के नीचे, अथवा हवेली में भी वह एकरस रहता है इसी प्रकार की अनासक्ति वृत्ति वाले के लिए ही ‘करतल भिक्षा तरुतल वासः’ अथवा ‘सुरमन्दिर तरुमूलनिवासः’ कहा गया है, इस प्रकार का परिब्रजन करने वाले ब्राह्मीभाव से कभी च्युत न होने वाले जीवनमुक्त महात्मा को ‘परमहंस परिब्राजक’ कहा जाता है । ओ३म् !
स्वामी शिवाश्रम
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