अनुपात अपना अपना
मैं हमेशा कहता हूँ कि हमारा व्यवहार जितनी एकाग्रता और सावधानी से होगा हमारा परमार्थ में मन उतना ही एकाग्र होगा । जिसका व्यवहार प्रबल नहीं है उसका परमार्थ प्रबल कैसे हो सकता है ? संपूर्ण त्रिपुरा रहस्य द्वितीय खंड मात्र व्यवहार का ही प्रतिपादन करता हुआ हमारे परमार्थ में स्थित योगी की सहजावस्था का वर्णन करता है, स्वयं योगवाशिष्ठ भी इसी व्यवहार पर ही केंद्रित है । अतः कभी कभी व्यवहार से भी शिक्षा ग्रहण करना चाहिए एवं विशिष्ट घटनाओं का जिससे प्रेरणा मिले ऐसी चर्चा अवश्य करना चाहिए । आज मैं भी कुछ ऐसी ही चर्चा का इच्छुक हूँ ।
बाजार में वही सब्जी, वही हल्दी मिर्च मसाले आदि मिलते हैं और सभी उन्हीं वस्तुओं का उपयोग करते हैं, किन्तु एक ही प्रकार के भोजन में भिन्न भिन्न लोगों द्वारा बनाया गया भोजन भिन्न भिन्न स्वाद वाला होता है, क्यों ? क्योंकि उन वस्तुओं का अनुपात सबका अपना अपना होता है अतः स्वाद में भी उत्कृष्ट और निकृष्ट का अन्तर स्वतः हो जाता है । मैं जब नर्मदा के उस तट पर आश्रम व्यवस्था देखता था तो बहुत से गृहस्थ भोजन करके प्रशंसा करते नहीं थकते और प्रश्न करते कि उन्हीं वस्तुओं बल्कि उससे अधिक सामग्री से घर में महिलाएं उतना स्वादिष्ट भोजन नहीं बना पाती हैं किन्तु इतना स्वादिष्ट कैसे बन जाता है ? बल्कि एक बंबई हाई कोर्ट के जज परिक्रमा में आये थे उनहोंने भोजनालय की सुव्यवस्था देखकर कहा कि इतनी सुव्यवस्था तो महिलाएं भी नहीं कर पाती हैं, मैं घर जाकर अपने घर की महिलाओं को यहाँ के भोजनालय के अनुसार ही सजाने के लिए प्रशिक्षित करूँगा ।
इसी प्रकार एक महात्मा किसी क्षेत्र के किसी आश्रम के भोजन के स्वाद की बहुत प्रशंसा करते हुए कहते थे कि शिवाश्रम जी मैने वैसा भोजन उसके बाद आज तक नहीं किया । फिर एक दिन मैने शर्त रखी कि मैं वैसा ही भोजन बना सकता हूँ लेकिन शर्त ये होगी कि मैं जब तक मैं भोजनालय में रहूँगा आप अन्दर नहीं आ सकते और यदि आये तो भोजन मैं बिल्कुल नहीं बनाऊँगा, आपको ही बनाना पड़ेगा । अगले दिन भोजनालय को अन्दर से बन्द करके भोजन बनाया । उन महात्मा ने ग्रहण किया और प्रशंसा की कि इस भोजन में ठीक वैसा ही स्वाद है, कैसे बनाया ? किन्तु मैने कहा तीन-चार दिन बाद बताऊंगा । प्रतिदिन भोजन की प्रशंसा और प्रश्न । फिर जब मैने विधि बताया तो वे अवाक् रह गये और बोले ऐसा कैसे हो सकता है ? मैं इस तरह से इतना रुचिकर बनाता हूँ वह ऐसा क्यों नहीं बनता है ? मैने कहा कि स्वामी जी इसमें एक चीज में अधिक डालता हूँ जो आप न तो कभी डालने देते हैं और न ही आप स्वयं डालते हैं, वह चीज है टोका न जाना, क्योंकि आप जानते हो कि जैसा मैं बनाता हूँ वही विधि ठीक है और टोक देते हो, मन की एकाग्रता और प्रसन्नता समाप्त हो जाती है, फलतः भोजन का स्वाद बेकार और पेट भराऊ मात्र रह जाता है । कोई देखने और टोकने वाला न होने से भगवान का कीर्तन करता हुआ प्रसन्नता पूर्वक भोजन बनाता हूँ, अतः वह स्वादिष्ट और शरीर के अनुकूल भी हो जाता है । उस दिन से उन्होंने टोकना और भोजनालय जाना ही बन्द कर दिया ।
इतनी व्यावहारिक चर्चा करने का कारण यह है कि हम आध्यात्मिक हैं, यद्यपि शास्त्र एक ही हैं और उन शास्त्रों का लक्ष्य भी एक ही है तथापि विचार करने की शैली अपनी अपनी भोजन के अनुपात के समान ही है । जो लोग कभी भोजन बनाते नहीं केवल खाना ही जानते हैं वे भोजन बनाने वाले की मनः स्थिति तो समझ तो नहीं सकते हैं किन्तु कमियों का पहाड़ खड़ा करके गालीगलौज अलग से करते हैं ।
ठीक वैसे ही तथाकथित अपने आपको विद्वान मानने वाले कुछ दास बुद्धि वाले भी आपको सब जगह कुछ न कुछ गाली देने वाले मिल ही जायेंगे । क्योंकि उनमें स्वयं विचार करने की क्षमता तो है नहीं, भाष्य टीकाओं, या अन्य शास्त्रों की अक्षर राशि रटने वाले और उसी से अपने आपको उत्कृष्ट विद्वान मानकर जो विचालशील हैं उनको निकृष्ट मानकर गाली देना उनका स्वभाव है, जिन्हें सीधे आसुरी प्रवृत्ति वाला कहा जाये तो अनुचित नहीं होगा ।
मैने एक बार मेरे निबंध को संपादित करके अपने नाम से साझा करने वाले से कहा कि आप संपादित करके अपने नाम से क्यों डालते हो, यदि कोई समस्या है तो मुझसे पूछो, तो मैं उसका उत्तर दूँगा, यह तो चोरी के समान है, महाशय ने बताया तुम भी तो शास्त्रों की चोरी करके अपने मनमाने ढंग से लिखते हो । अब उनसे पूछा जाये अगर मैं शास्त्रों से चोरी करके मनमाने ढंग से लिखता हूँ तो आप भी वैसा ही क्यों नहीं करते, दूसरे के निबंध ही क्यों चुराते हो ?
इसी प्रकार मैने कुछ दिन पूर्व “कर्म का स्वरूप” शीर्षक से निबन्ध साझा किया । एक तथाकथित विद्वान ने उसकी प्रतिलिपि बनाकर वही शीर्षक, वही मेरे द्वारा उठाये गये प्रश्न और मेरे ही निबंध का अधिकांश भाग ज्यों का त्यों रखते हुए शेष कुछ अंश संपादित करके अपने नाम से साझा किया, इसके अतिरिक्त एक और पोस्ट जिसमें “द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया” की मेरी व्याख्या का संपादन करके अपनी पोस्ट पर साझा किया, और ढिठाई देखो कि उन पोस्टों में मुझे टैग भी किया । मैने आपत्ति की तो मेरी पोस्ट को मनगढंत कहने लगे । माना कि मेरी पोस्ट मनगढंत थी तो संपादित करके अपने नाम डालने के स्थान पर मेरे से प्रमाण तो मांगा होता, यदि मैं न देता तब कोई भी आरोप लगाते ।
ऐसे तथापि कथित विद्वानों को यद्यपि मैं अमित्र कर ही देता हूँ तथापि यदि कोई अन्य भी हो तो उन्हें इस विषय में विचार करना होगा कि यदि मेरी कोई भी पोस्ट साझा करना है तो जैसी है वैसी ही साझा करो या कोई समस्या है तो विनम्रता से पूछो, यदि प्रश्न में विनम्रता है तो उत्तर अवश्य मिलेगा । शास्त्र एक ज्ञान का बाजार है, उसमें साधना संबंधित आध्यात्मिक कण जो जितने अधिकार वाला है उन्हें वे मिलते हैं उसके बाद उनका विनियोग और विचारों का दृष्टिकोण अपनी अपनी प्रकृति के अनुसार अपने ही अनुपात में होगा । अतः अपने अपने अनुपात का आंकलन करके विचार करो और दास बुद्धि का त्याग करो क्योंकि दास बुद्धि ही आध्यात्मिक क्षेत्र की सबसे बड़ी बाधक है । ओ३म् !
स्वामी शिवाश्रम
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