विचार की महिमा
ज्ञान से मुक्ति नहीं होती है, यदि यह बात सीधे कहा जाये तो कम लोग ही इस बात को पचा सकेंगे, किन्तु यथार्थ सत्य यह है कि यदि ज्ञान से ही मुक्ति हो जाती तो आज स्वरूप ज्ञान, ब्रह्मज्ञान से संसार के अधिकांश मनुष्य सूक्ष्म से सूक्ष्म विवेचन भी कर लेते हैं और “अहं ब्रह्मास्मि, सर्वं खल्वमिदं ब्रह्म” इत्यादि की दोनो हाथ उठाकर घोषणा भी करतकरते हैं किन्तु मुक्त क्यों नहीं होते ? सर्वथा सुख-दुख का अनुभव क्यों करते हैं ? क्या यह ज्ञान नहीं है ?
यह ज्ञान अवश्य है लेकिन विचारहीन और किताबी ज्ञान है वस्तु स्थिति नहीं । वस्तु स्थिति का ज्ञान तो हित और अहित के विचार से ही होगा । यह किताबी ब्रह्मज्ञान भी हमारे शरीर की विभिन्न परिस्थितियों में साथ छोड़ देता है, किसी काम में नहीं आता है, लोक में भले ही कितने भी बड़े यशस्वी विद्वान रहे हों....., वास्तविक ज्ञान का परिचय तो तब होता है जब हमारा शरीर पूर्णतः विपरीत हो चुका हो, धन पूर्णतः नष्ट हो गया हो, और तथाकथित अपने कहे जाने वालों की भी पग पग पर लातें बरस रही हों, उस समय यदि आपका विवेक स्थिर है और उस समय जो ज्ञान आपके हृदय में उत्पन्न होगा वास्तव में उसे ही विचार कहते हैं, वही अनुभवात्मक जीवन हमें मोक्ष प्रदान करने में सक्षम हैं वही हमें हमारी अन्तर्चेतना में पड़ी हुई अष्ट ग्रंथियों का नाश करने में समक्ष अशेष वैराग्य को प्रदान कराने वाला बोध है । जो इन अष्ट ग्रंथियों (पाशों) से पशुओं के पाश की तरह बंधा है वही पशु (जीव) है और जो इनसे मुक्त है वही पशुपति । ओ३म् !
स्वामी शिवाश्रम
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