पहले अधिकारी बनो
वेदान्त शास्त्र श्रवण मनन और निदिध्यासन इन तीन साधनों को परमतत्त्व की प्राप्ति का हेतु (सहायक) मानता है । किन्तु वह इनसे प्राप्त नहीं होता मात्र प्राप्ति का अधिकार ही प्राप्त है, परमतत्त्व की प्राप्ति तो मात्र स्थिता में ही होती है जैसा कि स्मृति शास्त्र भगवती गीता का निर्देश है—
प्रजाहित यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान् ।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थित प्रज्ञस्तदोच्यते ॥
मनोगत संपूर्ण क्रियाओं के स्थिर हो जाने पर ही स्वरूपस्थ होने की बात कही गई है, जबकि तंत्र शास्त्र भी ऐसा ही मानते हैं जैसा कि त्रिपुरा रहस्य में कहा गया है—
यावदन्वेषणं कुर्याद्विचारं वाऽपि पण्डितः।
तावन्न प्राप्यते तद्वै यतो न ग्राह्यवेव तत् ॥
अर्थात जब तक कोई पंडित आत्मा की खोज या उसके विचार में लगा रहता है तब तक वह नहीं मिल सकता, क्योंकि वह ग्राह्य है ही नहीं ।
गत्वा दूरं न तत् प्राप्यं स्थित्वा प्राप्तं हि सर्वदा ।
न तद्विचार्य विज्ञेयमविचाराद्विभासते ॥
वह दूर चलकर प्राप्त नहीं किया जा सकता है, वह तो सर्वदा एकरस स्थिर सरकार रहने से ही मिलता है । उसका ज्ञान विचार करने से नहीं बल्कि विचारों के निवृत्त होने से ही (अनुभूति स्वरूप) होता है ।
यहाँ पर विचार (श्रवण मनन निदिध्यासन) को क्रिया रूप ही माना गया है क्योंकि ये विचार भी इन्द्रियों और अन्तःकरण के आधीन ही हैं । जैसे कोई अपने मस्तक की छाया दौड़कर नहीं पकड़ सकता है, बालक अपने प्रतिबिंब को दर्पण में देखकर भी प्रतिबिंब को ही अपना स्वरूप मान लेता है किन्तु दर्पण का ज्ञान नहीं होता है ।
ठीक इसी प्रकार संपूर्ण क्रियाएँ चिद्रूपी दर्पण में घटित होने पर भी चित् का ज्ञान नहीं होता, अतः विचार रूप क्रिया की भी निवृत्ति आवश्यक है । तथापि अधिकार प्राप्ति के लिए सहायक रूप में श्रवणादि एवं उपासना का प्राबल्य होना आवश्यक है है अन्यथा यह परमतत्त्व उसी प्रकार समझ में नहीं आयेगा जैसे संवर्त ऋषि के उपदेश देने पर भी परशुराम जी को समझ में नहीं आया था, किन्तु गुरु दत्तात्रेय जी के आदेश से बारह वर्ष तक कठोर उपासना करने के बाद श्रवण करते ही उसका अधिकार प्राप्त होने के कारण तुरन्त समझ में आ गया । ओ३म् !
स्वामी शिवाश्रम
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