आत्मबल की आवश्यकता
आत्मबल की आवश्यकता
त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन ।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान् ॥२/४५॥
भावार्थ : हे अर्जुन ! वेद उपर्युक्त प्रकार से तीनों गुणों के कार्य रूप समस्त भोगों एवं उनके साधनों का प्रतिपादन करने वाले हैं, इसलिए तू उन भोगों एवं उनके साधनों में आसक्तिहीन, हर्ष-शोकादि द्वंद्वों से रहित, शुद्ध सत्त्वगुण में स्थित होकर योग (अप्राप्त की प्राप्ति का नाम 'योग' है।) क्षेम (प्राप्त वस्तु की रक्षा का नाम 'क्षेम' है।) को न चाहने वाला और स्वाधीन अन्तःकरण वाला हो ।
अथवा इसका भाव इस प्रकार समझना चाहिए— तीनो गुणों के कार्यरूप भोगवासना का त्याग करना ही तीनो गुणों से ऊपर उठना है, इसका पहला साधन है निर्द्वन्द्वता, दूसरा साधन है, सत्त्वगुण में अनवरत स्थित होना, और तीसरा साधन है अशेष संसार से निराश होना और अन्तिम साधन है आत्मबल से संपन्न होना ।
अथवा आत्मबल से संपन्न क्यों होना बताया गया है ? इसलिए कि हम वेदों के पुष्पित वाक्यों के आधीन होकर आत्म बल को काम प्रेरित होकर नष्ट कर चुके हैं । इन्द्रियाँ सहजता से त्रिगुणात्मक राग-द्वेष से कभी भी ऊपर न उठना चाहती हैं और न ही उठने देती हैं । अतः जब तक उत्कृष्ट आत्मबल से संपन्न नहीं हो जाते हैं तब तक हम निर्द्वन्द्व हो ही नहीं सकते, और निर्द्वन्द्व हुए बिना शुद्ध सत्वगुण में प्रतिष्ठित भी नहीं हो सकते हैं क्योंकि शुद्ध सत्त्वगुण ही हमें राग-द्वेष के मूल तमोगुण का स्थूल रूप शरीर और सूक्ष्म प्रमादादि से और रजोगुण का कार्य इन्द्रियों और उनके विषयों से अनासक्ति उत्पन्न करके स्वरूपावस्था में प्रतिष्ठित करेगा, यही स्वरूपावस्था हमारे सभी त्रिगुणात्मक योगक्षेम की चिन्ता का नाश करके हमें योगक्षेम से रहित निस्त्रैगुण्य स्वरूप में प्रतिष्ठित करेगी । ओ३म् !
स्वामी शिवाश्रम
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