भक्ति
भक्ति
श्रीमद्भागवत में कल्याण के विभिन्न साधनों— सकामकर्म, निष्कामकर्म, साधनज्ञान, सिद्धज्ञान, साधनभक्ति, साध्यभक्ति, वैधीभक्ति, प्रेमाभक्ति, अनुग्रह, द्वैत, अद्वैत, द्वैताद्वैत इत्यादि का बहुत ही मार्मिक वर्णन मिलता है । इसमें मात्र भक्ति का विचार किया जाता है—
आचार्य शंकर ने “प्रबोध सुधाकर” में स्थूल एवं सूक्ष्म दो प्रकार की भक्ति का वर्णन किया है— पहली भक्ति में मूर्तिपूजा आदि का विधिवत वर्णन स्थूल भक्ति के रूप में तथा उनके अंगादि का मानसिक ध्यान एवं पूजन सूक्ष्म भक्ति के रूप में किया गया है । ये दोनो भक्ति साधन भक्ति के रूप में समझना चाहिए । साध्यभक्ति में विवेक चूड़ामणि के अनुसार एकमात्र आत्मनिष्ठा ही भक्ति है वही साध्य है, तात्पर्य यह है परमेश्वर को आत्मरूप से जानने का अनवरत प्रयत्न ही साध्यभक्ति है ।
वैधीभक्ति लोक और वेद की मर्यादा से बंधी हुई है, यही कारण है कि गोपकुमारियों को शिक्षा देने के लिए उनके वस्त्र हरण करके उन्हें नग्न स्नान में लौकिक और वैदिक रूप में दोष दर्शन कराते हैं । साथ ही यज्ञपत्नियों को भी इसी वैधीभक्ति के अन्तर्गत ही समझना चाहिए ।
प्रेमाभक्ति में कोई मर्यादा, कोई बन्धन नहीं है । महारास के समय अपने प्रभु श्रीकृष्ण से मिलन के लिए गई हुई गोपियों को भगवान पति पुत्र आदि लौकिक और वैदिक मर्यादा की शिक्षा देते हैं किन्तु वहाँ पर गोपियों का उत्तर अत्यंत प्रशंसनीय आचरणीय है । यहाँ पर कोई मर्यादा ठीक वैसे ही नहीं बांध सकती है जैसे नदी को पार होने के बाद न तो नदी मार्ग की बाधक बनती है और न ही नौका आदि की आवश्यकता होती है । यही है गीता का “सर्वधर्मान्परित्यज्य" । यह धर्म का त्याग करके नहीं बल्कि सहज ही प्राप्त सिद्धावस्था है, इसमें यदि लोक वेद बाधक बनता है तो ऐसा भक्त अपने शरीर का ही ध्यानयोग द्वारा त्याग कर देता है जैसे कुछ गोपियों को रोक लेने पर उन्होंने ध्यान में ही श्रीकृष्ण से मिलकर शरीर को पके फल की तरह त्याग दिया था ।
वस्तुतः श्रीकृष्ण ही आत्मा हैं, आत्माकार वृत्ति ही श्रीराधा जी हैं और आत्माकार हुई हमारी अनन्त वृत्तियाँ ही गोपियां हैं यही “रास” है, उच्चकोटि के साधकों की यह रास लीला सर्वथा चलती ही रहती है । इसी को गीता में आत्मरति कहा गया है, इसे ही आत्ममिथुन, आत्मक्रीड़ा भी कहते हैं ।
इस लेख का आश्रय श्रीहनुमान प्रसाद पोद्दार जी से भी लिया है । अधिक लिखने का कोई लाभ नहीं है, भागवत अध्यात्म की चरमसीमा है । अतः साधकों इसका आदर करना चाहिए । कुछ मेरी जिज्ञासाएं शान्त अवश्य नहीं हुई हैं और उनका समाधान भी वर्तमान काल के भागवतकार कदाचित कर भी नहीं सकते हैं, अतः उसे भगवान श्रीकृष्ण ही जानें और मुझपर अपनी अहैतुकी कृपा बनाए रखें । ओ३म् !
स्वामी शिवाश्रम
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