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गीता में जाति व्यवस्था

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गीता में जाति व्यवस्था मैं कुछ समय से देख रहा हूँ कि कुछ लोग गीता में वर्ण एवं जातीय व्यवस्था न होने का दावा करते हुए केवल गीता के नाम पर जाति का दुरूपयोग किया जाना बतातें हैं । यह बात यद्यपि यथार्थ सत्य है कि जाति का दुरूपयोग आज वे भी कर रहे हैं जो ब्राह्मणादि चिढ़ते हैं और अन्तर्जातीय विवाह के द्वारा जातीय भेदभाव मिटाने की वकालत करते हैं किन्तु वही लोग सरकारी आरक्षण की भीख जाति के नाम पर ही पाते हैं तथा दूसरा ब्राह्मणादि पक्ष भी आज भी अपनी कमियों को सुधारने के स्थान पर और अधिक ब्राह्मणादि के नाम का दुरूपयोग करने में पीछे नहीं हैं जो कि अनुचित है ।              इस विषय में मैं बहुत व्याख्यान न देता हुआ इतना ही कहना चाहता हूँ कि जो लोग गीता में जाति या वर्ण नहीं मानते हैं, वर्ण व्यवस्था संबंधित चतुर्थ अध्याय के प्रसंग की मनमानी व्याख्या करते हैं, उनसे पूछना चाहता हूँ कि क्या गीता का पूर्वापर क्रम से अध्ययन किया है ? यदि नहीं किया तो कर लो— ‘कुलक्षयकृतं दोषम्’ १/३८-३९ अर्थात कुल क्षय को दोषपूर्ण बताया गया है । ‘क...

गुरुतत्त्व की अनुभूति क्यों नहीं होती ?

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बाह्य गुरु अन्तर्चेतना अर्थात अन्दर के गुरु को जाग्रत करता है, उस समय दो प्रकार की प्रेरणाएं मिलती हैं, पहली आपके हृदय में उत्पन्न होने वाली सूक्ष्म ध्वनियाँ जिन्हें समझकर हम अपना आगे का मार्ग प्रशस्त करते हैं, दूसरी किसी सन्त, बालक या स्त्री रूप में कुछ संबोधन या क्रिया द्वारा प्रेरित करता है । चूंकि गुरु व्यापक तत्त्व है, वह एक ही शरीर से संपूर्ण शिक्षा पूर्ण नहीं कर सकता है क्योंकि वह उतनी ही कला को लेकर उत्पन्न होता है, यद्यपि वह जानता भी और शिक्षा दे भी सकता है तो भी वह लोक दृष्टि से भी बहुत सारी शिक्षाएं नहीं दे सकता है क्योंकि उससे गुरु के स्वार्थी होने का भी भय शिक्षार्थियों में पनपने का भय रहता है । अतः गुरु पर निष्ठा आवश्यक होने के बाद भी सन्तों पर भी निष्ठा और उनकी सेवा अत्यावश्यक है, तभी गुरु कृपा का अनुभव होगा अन्यथा कितने भी विद्वान स्वयं को कोई भी क्यों न सिद्ध कर ले लेकिन गुरु कृपा का अनुभव त्रिकाल में भी नहीं हो सकता है, चूंकि ब्रह्मतत्त्व गुरु से अभिन्न ही होता है तो फिर ब्रह्म का अलग से अनुभव होगा भी नही कैसे ? ओ३म् !           ...

अनुपात अपना अपना

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          मैं हमेशा कहता हूँ कि हमारा व्यवहार जितनी एकाग्रता और सावधानी से होगा हमारा परमार्थ में मन उतना ही एकाग्र होगा । जिसका व्यवहार प्रबल नहीं है उसका परमार्थ प्रबल कैसे हो सकता है ? संपूर्ण त्रिपुरा रहस्य द्वितीय खंड मात्र व्यवहार का ही प्रतिपादन करता हुआ हमारे परमार्थ में स्थित योगी की सहजावस्था का वर्णन करता है, स्वयं योगवाशिष्ठ भी इसी व्यवहार पर ही केंद्रित है । अतः कभी कभी व्यवहार से भी शिक्षा ग्रहण करना चाहिए एवं विशिष्ट घटनाओं का जिससे प्रेरणा मिले ऐसी चर्चा अवश्य करना चाहिए । आज मैं भी कुछ ऐसी ही चर्चा का इच्छुक हूँ ।            बाजार में वही सब्जी, वही हल्दी मिर्च मसाले आदि मिलते हैं और सभी उन्हीं वस्तुओं का उपयोग करते हैं, किन्तु एक ही प्रकार के भोजन में भिन्न भिन्न लोगों द्वारा बनाया गया भोजन भिन्न भिन्न स्वाद वाला होता है, क्यों ? क्योंकि उन वस्तुओं का अनुपात सबका अपना अपना होता है अतः स्वाद में भी उत्कृष्ट और निकृष्ट का अन्तर स्वतः हो जाता है । मैं जब नर्मदा के उस तट पर आश्रम व्यवस्था देखता था तो बहुत स...

पहले अधिकारी बनो

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         वेदान्त शास्त्र श्रवण मनन और निदिध्यासन इन तीन साधनों को परमतत्त्व की प्राप्ति का हेतु (सहायक) मानता है । किन्तु वह इनसे प्राप्त नहीं होता मात्र प्राप्ति का अधिकार ही प्राप्त है, परमतत्त्व की प्राप्ति तो मात्र स्थिता में ही होती है जैसा कि स्मृति शास्त्र भगवती गीता का निर्देश है— प्रजाहित यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान् ।  आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थित प्रज्ञस्तदोच्यते ॥        मनोगत संपूर्ण क्रियाओं के स्थिर हो जाने पर ही स्वरूपस्थ होने की बात कही गई है, जबकि तंत्र शास्त्र भी ऐसा ही मानते हैं जैसा कि त्रिपुरा रहस्य में कहा गया है— यावदन्वेषणं कुर्याद्विचारं वाऽपि पण्डितः।  तावन्न प्राप्यते तद्वै यतो न ग्राह्यवेव तत् ॥          अर्थात जब तक कोई पंडित आत्मा की खोज या उसके विचार में लगा रहता है तब तक वह नहीं मिल सकता, क्योंकि वह ग्राह्य है ही नहीं ।  गत्वा दूरं न तत् प्राप्यं स्थित्वा प्राप्तं हि सर्वदा ।  न तद्विचार्य विज्ञेयमविचाराद्विभासते ॥          ...

लोक मर्यादा का ध्यान रखें

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माता छिन्नमस्तिका का स्वरूप दिगंबरा है, साथ ही भगवती धूमावती, कालिका इत्याउका स्वरूप भी दिगंबर ही माना जाता है, यहाँ तक भगवती कामाख्या तो साक्षात योनि रूपा हैं और वर्ष में एक बार संभवतः आषाढ़ मास में भगवती रजस्वला भी होती हैं और उस समय मन्दिर चार दिन के लिए योनि को वस्त्रों से ढक कर बन्द कर दिया जाता है, जब मन्दिर खुलता है तब वही रजयुक्त वस्त्रों का प्रसाद रूप में वितरण भी होता है । यह बात स्वयं देवी भागवत में वर्णित है । भगवती कामाख्या भगवान शंकर के लिंग पर ही आकाशस्थ हैं । इन सभी देवियों की उपासना का तन्त्र शास्त्र (वाममार्ग) में अपना एक अलग स्थान है । यह साधना पति-पत्नी मिलकर करते हैं, इनकी दीक्षा में अविवाहित या अकेले स्त्री-पुरुष को नहीं दी जाती है । खैर प्रसंग दिशा विरुद्ध हो गया, हम अपने मुख्य उद्देश्य पर आ जाते हैं—             मैं कहना चाहता था कि ये सभी देवियाँ दिगंबरा होकर भी जब इनकी झांकी प्रस्तुत की जाती है तब इनके गुह्यअंगों कों मुंडों से, हाथों से या आभूषणों से ढक दिया जाता है, जहाँ पर ऐसा नहीं होता है वहाँ पर देवी को दायें या बाए...

विचार की महिमा

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ज्ञान से मुक्ति नहीं होती है, यदि यह बात सीधे कहा जाये तो कम लोग ही इस बात को पचा सकेंगे, किन्तु यथार्थ सत्य यह है कि यदि ज्ञान से ही मुक्ति हो जाती तो आज स्वरूप ज्ञान, ब्रह्मज्ञान से संसार के अधिकांश मनुष्य सूक्ष्म से सूक्ष्म विवेचन भी कर लेते हैं और “अहं ब्रह्मास्मि, सर्वं खल्वमिदं ब्रह्म” इत्यादि की दोनो हाथ उठाकर घोषणा भी करतकरते हैं किन्तु मुक्त क्यों नहीं होते ? सर्वथा सुख-दुख का अनुभव क्यों करते हैं ? क्या यह ज्ञान नहीं है ?             यह ज्ञान अवश्य है लेकिन विचारहीन और किताबी ज्ञान है वस्तु स्थिति नहीं । वस्तु स्थिति का ज्ञान तो हित और अहित के विचार से ही होगा । यह किताबी ब्रह्मज्ञान भी हमारे शरीर की विभिन्न परिस्थितियों में साथ छोड़ देता है, किसी काम में नहीं आता है, लोक में भले ही कितने भी बड़े यशस्वी विद्वान रहे हों....., वास्तविक ज्ञान का परिचय तो तब होता है जब हमारा शरीर पूर्णतः विपरीत हो चुका हो, धन पूर्णतः नष्ट हो गया हो, और तथाकथित अपने कहे जाने वालों की भी पग पग पर लातें बरस रही हों, उस समय यदि आपका विवेक स्थिर है और उस स...

तुम से जो नरक भी नाक सिकोड़ेगा

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निरुक्त का उद्घोष है कि जो वेद के अर्थ को नहीं जानता वह भारवाही पशु है । अब अर्थ का तात्पर्य शब्दार्थ भी हो सकता है और लक्ष्यार्थ भी । किन्तु यह बात तो स्पष्ट है कि हमारे यहाँ असुर भी वेदों के प्रकाण्ड ज्ञाता थे, राणव, हिरण्यकश्यप आदि असुरों को पढ़ना चाहिए, दुर्योधन तो यहाँ तक कहता है— “जानमि धर्मं न च मे निवृत्तिः..... ” अर्थात धर्म क्या है निर्णय करने में हमारे असुर भी समर्थ थे उससे निवृत्त न हो पाना यह उनकी भोगवासना का परिणाम रहा है ये अलग बात है ।            अब यदि वेद का अर्थ लक्ष्यार्थ में लिया जाये तो जब तक शब्दार्थ का ज्ञान नहीं होगा तब तक लक्ष्यार्थ कैसे समझ में आयेगा ? अतः उसके लिए पढ़ना आवश्यक है उसके बाद चाहो तो राम बनो या रावण, लेकिन पहले पढ़ों ।            जिन महापुरुषों का ये उक्त उद्घोष है कि जो वेद-शास्त्र को पढ़ता तो है किन्तु आत्मसात् नहीं करता वह पशु (गधे) की तरह बोझ ढोने वाला है— “भारं वहति गर्दभः” उन्होंने पहले पढ़ा और फिर गंभीरतापूर्वक व्यापक भाव से चिन्तन किया और फिर उक्त उद्घोष किया ताकि वेद...

वितंडा से बचिए

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वितंडा से बचिए             आज के ज्ञानियों के वितंडा का स्वरूप देखिए । आज से तीन वर्ष पहले एक मेरे अत्यन्त करीबी महात्मा जिनका मैं नाम नहीं ले सकता, उनसे तत्त्व चर्चा के अन्तर्गत कुछ ऐसा प्रसंग आया जिसमें मैने त्रिपुरा रहस्य का उदाहरण दिया जिसमें अष्टावक्र को योगिनी द्वारा यह कहा गया था कि इस सभा में उस चिन्मय परम तत्त्व को या तो मैं जानती हूँ या फिर राजा जनक जानते हैं । इस पर उन महात्मा ने कहा कि नहीं ऐसा कहीं नहीं कहा है, वहाँ संदेह व्यक्त किया है कि यद्यपि हम दोनो जानते हैं तथापि वह भी संदिग्ध है । अन्त में मूल श्लोक निकाला गया— एतावत्सु सभासत्सु न विजानाति कश्चन । राजाऽयं वेत्त्यहं वापि वेद्मि नान्यस्तु कश्चन ॥२/१५/७६॥        अर्थात यहाँ जितने सभासद हैं उनमें से कोई भी नहीं जानता । मैं जानती हूँ या निश्चित ही राजा जानता है, अन्य कोई नहीं ।               मूल श्लोक में वा को उन महोदय ने संदेह के अन्तर्गत रखकर बताया कि नहीं उन्हें भी ज्ञान होने में सन्देह था । मैनै पूर्वापर का विचार कर...

आत्मबल की आवश्यकता

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आत्मबल की आवश्यकता त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन ।  निर्द्वन्द्वो नित्यसत्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्‌ ॥२/४५॥             भावार्थ : हे अर्जुन ! वेद उपर्युक्त प्रकार से तीनों गुणों के कार्य रूप समस्त भोगों एवं उनके साधनों का प्रतिपादन करने वाले हैं, इसलिए तू उन भोगों एवं उनके साधनों में आसक्तिहीन, हर्ष-शोकादि द्वंद्वों से रहित, शुद्ध सत्त्वगुण में स्थित होकर योग (अप्राप्त की प्राप्ति का नाम 'योग' है।) क्षेम (प्राप्त वस्तु की रक्षा का नाम 'क्षेम' है।) को न चाहने वाला और स्वाधीन अन्तःकरण वाला हो ।              अथवा इसका भाव इस प्रकार समझना चाहिए— तीनो गुणों के कार्यरूप भोगवासना का त्याग करना ही तीनो गुणों से ऊपर उठना है, इसका पहला साधन है निर्द्वन्द्वता, दूसरा साधन है, सत्त्वगुण में अनवरत स्थित होना, और तीसरा साधन है अशेष संसार से निराश होना और अन्तिम साधन है आत्मबल से संपन्न होना ।               अथवा आत्मबल से संपन्न क्यों होना बताया गया है ? इसलिए कि हम ...

परमहंस परिब्राजक

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जिज्ञासा — गुरुदेव, शब्द "परमहंस परिव्राजक" को कृपया समझावें। 🙏🏼 समाधान— हंस कहते हैं नीर-क्षीर विवेक करने वाले को । जैसे हंस दूध में मिले पानी को अलग करके मात्र दूध को ग्रहण कर लेता है, वैसे ही जो महात्मा अहन्ता और इदन्ता के स्वरूप को ठीक ठीक जानता है वह हंस कोटि का महात्मा होता है, उक्त विवेक के पश्चात जो परमतत्त्व को आत्मसात भी कर ले वह परमहंस कहलाता है । परिब्रजन का अर्थ होता है निरन्तर भ्रमण करना, और जो निरन्तर भ्रमण करता है उसे परिव्राजक कहते हैं । तात्पर्य यह है कि जिसकी कहीं भी स्वल्पाति स्वल्प आसक्ति न हो, यहाँ तक रहने के शरीर में भी, बाह्य कुटी आदि में भी, खाने और सोने का कोई नियम उसके लिए बाध्यकारी नहीं होता है, हाथ में खाने को मिले, खप्पर में या, चांदी सोने के पात्र में, सर्वत्र एक सम अनासक्त भाव में स्थित रहना, सोने के लिए गद्दा, नंगी भूमि, खुले आकाश के नीचे, अथवा हवेली में भी वह एकरस रहता है इसी प्रकार की अनासक्ति वृत्ति वाले के लिए ही ‘करतल भिक्षा तरुतल वासः’ अथवा ‘सुरमन्दिर तरुमूलनिवासः’ कहा गया है, इस प्रकार का परिब्रजन करने वाले ब्राह्मीभाव से...

तुम से तो नरक भी नाक सिकोड़ेगा

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तुम से तो नरक भी नाक सिकोड़ेगा निरुक्त का उद्घोष है कि जो वेद के अर्थ को नहीं जानता वह भारवाही पशु है । अब अर्थ का तात्पर्य शब्दार्थ भी हो सकता है और लक्ष्यार्थ भी । किन्तु यह बात तो स्पष्ट है कि हमारे यहाँ असुर भी वेदों के प्रकाण्ड ज्ञाता थे, राणव, हिरण्यकश्यप आदि असुरों को पढ़ना चाहिए, दुर्योधन तो यहाँ तक कहता है— “जानमि धर्मं न च मे निवृत्तिः..... ” अर्थात धर्म क्या है निर्णय करने में हमारे असुर भी समर्थ थे उससे निवृत्त न हो पाना यह उनकी भोगवासना का परिणाम रहा है ये अलग बात है ।            अब यदि वेद का अर्थ लक्ष्यार्थ में लिया जाये तो जब तक शब्दार्थ का ज्ञान नहीं होगा तब तक लक्ष्यार्थ कैसे समझ में आयेगा ? अतः उसके लिए पढ़ना आवश्यक है उसके बाद चाहो तो राम बनो या रावण, लेकिन पहले पढ़ों ।            जिन महापुरुषों का ये उक्त उद्घोष है कि जो वेद-शास्त्र को पढ़ता तो है किन्तु आत्मसात् नहीं करता वह पशु (गधे) की तरह बोझ ढोने वाला है— “भारं वहति गर्दभः” उन्होंने पहले पढ़ा और फिर गंभीरतापूर्वक व्यापक भाव से चिन्तन किया औ...

भक्ति

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भक्ति       श्रीमद्भागवत में कल्याण के विभिन्न साधनों— सकामकर्म, निष्कामकर्म, साधनज्ञान, सिद्धज्ञान, साधनभक्ति, साध्यभक्ति, वैधीभक्ति, प्रेमाभक्ति, अनुग्रह, द्वैत, अद्वैत, द्वैताद्वैत इत्यादि का बहुत ही मार्मिक वर्णन मिलता है । इसमें मात्र भक्ति का विचार किया जाता है—            आचार्य शंकर ने “प्रबोध सुधाकर” में स्थूल एवं सूक्ष्म दो प्रकार की भक्ति का वर्णन किया है— पहली भक्ति में मूर्तिपूजा आदि का विधिवत वर्णन स्थूल भक्ति के रूप में तथा उनके अंगादि का मानसिक ध्यान एवं पूजन सूक्ष्म भक्ति के रूप में किया गया है । ये दोनो भक्ति साधन भक्ति के रूप में समझना चाहिए । साध्यभक्ति में विवेक चूड़ामणि के अनुसार एकमात्र आत्मनिष्ठा ही भक्ति है वही साध्य है, तात्पर्य यह है परमेश्वर को आत्मरूप से जानने का अनवरत प्रयत्न ही साध्यभक्ति है ।                वैधीभक्ति लोक और वेद की मर्यादा से बंधी हुई है, यही कारण है कि गोपकुमारियों को शिक्षा देने के लिए उनके वस्त्र हरण करके उन्हें नग्न स्नान में लौकिक और वैदिक...

अध्यात्म क्या है?

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अध्यात्म क्या है ?  ----------------------             इस अर्जुन के एक प्रश्न के साथ हम दो प्रश्न एक साथ संयुक्त कर लें तो समझना और अधिक सरल होगा— “किं तद्ब्रह्म किमध्यात्मम् ?” गी.८/१ अर्थात वह ब्रह्म क्या है ? और अध्यात्म क्या है ? उत्तर में श्रीभगवान् कहते हैं— “अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते” ८/३ अर्थात जो (अक्षर से भी) श्रेष्ठ अक्षर है वह ब्रह्म है, और स्वभाव को ही अध्यात्म कहते हैं । यहाँ अक्षर से प्रकृति का भी ग्रहण किया जा सकता है और प्रणव (ॐ) को भी अपनी भावना के अनुसार, इसीलिये उसका निराकरण यहाँ “परम” विशेषण देकर किया गया है ताकि भ्रम उत्पन्न न हो (अक्षर की व्याख्या पुरुषोत्तम नामक शीर्षक में भी देखना चाहिए)। अब हम पहले अध्यात्म को समझ लेते हैं कि अध्यात्म है क्या ? अध्यात्म को स्वयं भगवान परिभाषित करते हैं— “अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थ दर्शनम् । एतञ्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा ॥१३/११॥  अर्थात अध्यात्म ज्ञान नित्यतत्त्व का बोध कराने वाला है, अर्थात जो जिस साधन से आत्मस्वरूप नित्य अविनाशी श्रेष्ठ च...

पुरुषोत्तम

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पुरुषोत्तम ------------- शास्त्रों के अनुसार संपूर्ण जगत प्रकृति-पुरुषात्मक है । किन्तु कोई परमतत्त्व ऐसा भी है जो संपूर्ण जगत से परे है । श्रीमद्भागवतादि शास्त्रों में उसकी स्तुति प्रकृति-पुरुष से परे उन दोनों के नियामक या उन दोनो को सत्ता देने वाले सर्वाधिष्ठान के रूप में की गई है । तीनो गुणों की साम्यावस्था प्रकृति को भगवती गीता दो भागों में विभाजित करती है, पहली अपरा प्रकृति और दूसरी परा प्रकृति । अपरा प्रकृति को पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि एवं अहंकार इन आठ भागों में और परा प्रकृति का लक्षण किया जीवभाव को प्राप्त जो संपूर्ण जगत को धारण करने वाला चिदाभास वह गी.७/४-५, इन सबसे भिन्न जिसे बताया गया है जो इन दोनो का निमित्तोपादान कारण है जिसमें त्रिगुणात्मक संपूर्ण जगत धागे में धागे की मणियों की तरह अभिन्न रूप से पिरोया हुआ है गी.७/६-७ ।            अपर का अर्थ होता है कनिष्ट या अधम, पर का अर्थ होता है उत्तम या श्रेष्ठ । अतः प्रकृति को यहाँ पर निकृष्ट और श्रेष्ठ करके बताया गया । अर्जुन के आठवें अध्याय के सभी...

विभिन्न मतों की पोषक श्रीमद्भागवत एवं लक्ष्य

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श्रीमद्भागवत महापुराण          मैं जब नवीं-दसवीं कक्षा में पढ़ता था उस समय सतपालमहाराज एवं बालयोगेश्वरमहाराज की संस्था का साप्ताहिक सतसंग लंबी दूरी तय करके भी सुनता था । उस समय एक कहानी सुनी थी कि एक हाथी जा रहा था, कुछ अन्धे थे उन्होंने जब सुना कि कोई हाथी जा रहा है तो हाथी कैसा होता है यह जानने की इच्छा से हाथी को सभी ने पकड़ा । जिसने कान पकड़े थे वह सूप जैसा, पैर वाले ने खंभे जैसा, पूछ वाले ने झाड़ू जैसा, सूँड़ वाले ने सांप जैसा, पेट वाले ने नगाड़े जैसा हाथी का स्वरूप कथन करते हुए परस्पर कलह करने लगे । इस कलह को शान्त करते हुए किसी आंख वाले ने कहा कि तुम सब सही कह रहे हो, लेकिन वे एक एक अंग मात्र हैं, वे सभी अंग मिलकर ही वह एक हाथी है । ठीक ऐसा ही कुछ श्रीमद्भागवत महापुराण में देखने को मिला ।           श्रीमद्भागवत महापुराण में चतुर्व्यूह का बहुत वर्णन मिलता है । इस चतुर्व्यूह की उपासना का जहाँ तक मेरी स्मृति है तो श्रीवल्लभ संप्रदाय में बहुत महत्व है । वहीं जब संन्यास का वर्णन आता है त...

कर्म का स्वरूप

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कर्म की परिभाषा भगवान स्वयं देते हैं— “यज्ञार्थाकर्मणः” ३/९ अर्थात कर्म वह है जो ईश्वर के निमित्त किया जाये, क्योंकि वह मोक्ष का हेतु है । इसका तात्पर्य यह हुआ कि जिन क्रियाओं द्वारा मोक्ष की प्राप्ति हो उस क्रियामात्र को कर्म नाम से परिभाषित किया गया है, इसी बात को और अधिक स्पष्ट करते हुए स्वयं श्रीभगवान् कहते हैं— “भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्म सञ्ज्ञितः” ८/३, अर्थात प्राणियों की उन्नति का जो श्रोत त्याग है वही कर्म नाम से कहा गया है । गीता के अनुसार प्राणियों की उन्नति मोक्ष में ही मानी गई, अन्य सांसारिक उन्नति उन्नति नहीं बल्कि पतन है ।               इससे यह तो स्पष्ट हो गया है कि निरपेक्ष एवं कर्तृवाभिमान से रहित होकर की जाने वाली क्रिया मात्र कर्म ही है (निरपेक्ष कर्तृवाभिमान को समझने के लिए #गीता_में_सहजावस्था नामक शीर्षक पढ़ना चाहिए) । यही बात न्याय प्रस्थान (ब्रह्मसूत्र) में पुरुषार्थ रूप से परिभाषित की गई है, इससे भिन्न अन्य कोई पुरुषार्थ है ही नहीं ।         ...

आत्मौपम्येन सर्वत्र

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आत्मौपम्येन सर्वत्र          मित्रों ! मैं ऐसा कुछ लिखना नहीं चाहता था किन्तु कुछ वामपंथी दुराचारी अपनी वासना की ओट भगवान श्रीकृष्ण और गोपिकाओं के उदाहरण से पूर्ति करना चाहते हैं, अतः मैं शिक्षा की दृष्टि से कई घटनाओं में से आपको अपने जीवन की मात्र दो घटनाएं बताऊंगा जिसे गीता के #आत्मौपम्येन_सर्वत्र के रूप में समझा जा सकता है—                एक घटना सन् १९९७ ई. की है जब मैं नर्मदा परिक्रमा में था, उस समय मैं गुजरात के अंकलेश्वर में रामघाट नामक तीर्थ में स्नान कर रहा था, एक पंडा आकर बोला— अरे क्या साधू बन गये, विवाह करते घर में रहते पत्नी के साथ ऐश करते । मैने ककहा— हाँ पण्डा जी, मैं भी यही चाहता था किन्तु घर वालों ने बहुत कहने पर भी मेरा विवाह ही नहीं किया तो साधू बन गया, आज भी अगर विवाह हो जाये तो घर चला जाऊँगा, आप अपनी #बेटी का ब्याह मेरे साथ कर दो तो घर चला जाऊँ, वह बिगड़ गया और बोला मैं अपनी बेटी क्यों ब्याह दूँ, तो मैने कहा— जिस किसी लड़की से ब्याह होगा तो वह भी तो किसी न किसी की बेटी ही होगी, किन्तु अन्य ...

गीता में सहजावस्था

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कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।  मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ॥2–47॥ भावार्थ : तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं। इसलिए तू कर्मों के फल हेतु मत हो तथा तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो॥47॥          विचार— कर्मण्येवाधिकारस्ते द्वारा मनुष्य के कर्तव्य का बोध कराया गया है, कारण कि कर्तव्य बोध ही नवजात बच्चे की तरह निष्कपट और निश्छल एवं सहज होता है, किन्तु जिस समय कर्तव्य बुद्धि होने पर भी किये गये कर्म में फलाकांक्षा हो जाती उस समय स्वार्थ सामने उपस्थित हो जाता है जिससे कर्तव्य बोध ढक जाता है फलस्वरूप छल, कपट आदि संपूर्ण विकारों के आवरण मनुष्य को ढ़क लेते हैं और उसके द्वारा किये जाने वाले सभी कर्म अकर्तव्य अर्थात निषिद्ध कर्म की ओर अग्रसर हो जाते हैं । इसी अकर्तव्य पर अंकुश लगाने के लिए ही कहते “मा फलेषु कदाचन” कृत कर्म से क्या फल सिद्धि होगी इस पर विचार भी करने का तेरा अधिकार नहीं है फल प्राप्ति के लिए सोचना तो दूर की बात है ।             अब बात आती है कि चलो हम बिना कर्...

प्रज्ञानं ब्रह्म

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प्रज्ञानं ब्रह्म              (यू ट्यूब पर चलाये जा रहे आध्यात्मिक तथाकथित आचार्यों वेदान्तियों और सिद्धांतियों द्वारा चलाये जा रहे भ्रमक दुष्प्रचार के शिकार होने से बचें ।)              #आपका_कथन_है कि जो कहते हैं कि मैं स्त्री का स्पर्श नहीं करता वह पाखंडी है, जब सब कुछ ब्रह्म है तो स्त्री ब्रह्म क्यों नहीं ? आप स्त्री का तिरस्कार करके ब्रह्म का खंडन करते हैं । तो इस पर मैं इतना कहूँगा कि ब्रह्म गाजर मूली जितना कमजोर नहीं है जो इस प्रकार खंडित हो जायेगा, आप तो वेदान्ती हो उस पर भी वीतरागी संन्यासी, तो क्या आपने “प्रज्ञानं ब्रह्म” पढ़ा ? “आत्मौपम्येन सर्वत्र” पढ़ा ? नहीं पढ़ा तो पढ़िए, तथापि कुछ विचार दे रहा हूँ, बुद्धिमान क्षमा करेंगे, जो मूर्ख होंगे उनसे मूर्खता के अतिरिक्त और कोई भी अपेक्षा नहीं करता हूँ ।             #व्यष्टि_रूप_मैं—           ...

गीता का साधन साध्य एवं अधिकारी

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गीता का साधन साध्य एवं अधिकारी श्रीभगवान ने गी.२/४५ में वैदिक कर्म (स्वर्गादि कामना वाले कर्मकांड) का त्याग करके आत्मभाव में स्थित होने को बताया है, जिसका पहला साधन है निर्द्वन्द्व होना । द्वन्द्व शब्द द्वैत का प्रर्यायवाची शब्द है, निर्द्वन्द्व होने पर ही “नित्य सत्त्वस्थ और निर्योगक्षेम" संभव हो सकेगा, उसी के लिए कर्म और योग को परिभाषित किया २/४७-४८। इसके बाद कहते हैं— दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय ।  बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः ॥२/४९॥  इस श्लोक में अधिकांश अद्वैताचार्यों ने "बुद्धौ शरणमन्विच्छ" का अर्थ ज्ञानयोग की शरण लेना बताया है, किन्तु यह बात समझ में नहीं आती है क्योंकि अगले ही चरण में कहते हैं— “कृपणाः फलहेतवः” अर्थात सभी सकाम कर्म दीनता (जन्म-मरण) का हेतु हैं, इसका अर्थ यह हुआ कि “बुद्धौ शरणमन्विच्छ” का अर्थ ‘‘ज्ञानयोग” अद्वैताचार्यों का गलत है ? तो मैं कहूँगा कि नहीं, क्योंकि जिस प्रकार अध्याय १३ में ज्ञान प्राप्ति के साधन को ही वहाँ ज्ञान कहा गया है उसी प्रकार यहाँ भी निष्काम कर्मयोग को ही यहाँ ज्ञानयोग (समत्व भाव) की प्राप्ति के साधन ...